खैफ़ बरदोश मत बैठ बादलों के इंतजार में न बरसे हैं न बरसेंगे;
ज़माने की बात मत कर उम्रें निकल जाती है इश्क-ए-इंतजार में..
हवाओं के रुख को रुखसार पे मोड़ने से क्या होगा;
अब तो वो मुश्क भी नहीं मिलती है इश्क-ए-बयार में...
साथ छूटा हाथ छूटा जिंदगी के उस मोड़ पे;
अब तो बस सीधे रास्ते मिलते नहीं वफ़ा-ए-प्यार में...
ओस की बूंदों को कभी अश्क न समझा करो;
शबनम भी अब नहीं मिलती सहर-ए-क्वार में...
अब फलसफे से क्या क्या हासिल होगा "सहर";
तुम तो जिंदगी हार बैठे इम्तहान-ए-प्यार में...
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