तुम नहीं पर हर उच्छ्वास में आज भी पाता हूँ तुझे,
अमराई की डाली पे बैठी गोरैये में पाता हूँ तुझे,
नयी कोपल में,
नयी हरयाली में,
मदभरी फगुआ की बयार में,
रसभरी मधुकलश में,
बसंती मल्हार में पाता हूँ तुझे,
पछुआ की भरी धूल लपट में,
फागुन की अलसाई सुबह में,
तारों से भरी अकेली रातों में,
अधूरे चाँद में पाता हूँ तुझे;
चकोर की आशावादिता में ,
चाँद की नकार में,
भ्रमर की पुकार में,
सद्यः स्नात पत्तों की ओसबून्द में पाता हूँ तुझे;
सावन की भींगी शामों में,
शरद की सूनी रातों में,
कातिक की सिली सुबहो में,
पूस की ढंडी रातों में पाता हूँ तुझे;
निगाहों ही निगाह में,
दिल की ढंडी आह में,
पंछी के कलरव में,
महफ़िल की वाह वाह में पाता हूँ तुझे;
पूजा की हर लौ में,
सुबह की फटी पौ में,
भ्रमर के गुंजार में,
ह्रदय के आगार में पाता हूँ तुझे;
बौरों की महक में,
चिड़िया की चहक में,
ह्रदय की कसक में,
जेठ के दिवास्वप्न में पाता हूँ तुझे;
Monday, February 15, 2010
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