सहर-एक नयी सुबह

कुछ बातें ऐसी भी होंती हैं जिसे आप ज़माने वालों को बताना चाहते हैं पैर कभी कभी आप कह नहीं सकते....मुझे ऐसा लगता है इस से बढ़िया तरीका कोई नहीं हो सकता है...कहीं इस से किसी का कुछ भला हो सके....
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सहर-एक नयी सुबह

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Thursday, January 21, 2010

ख़ामोश लेखनी

फूलों की वो महकती ख़ुश्बू
बारिश का वो भीगा पानी
और हवा में थी जो रवानी
क्या उस मौसम का खुमार लिखूं?


कुछ लिखना चाहता हूँ
सोचता हूँ क्या लिखूं?


थी चेहरे पर मेरी मासूमियत
आँखों में थी थोड़ी शरारत
और बातों में वो नज़ाकत
क्या अपना रंगीन मिज़ाज लिखूं?

कुछ लिखना चाहता हूँ
सोचता हूँ क्या लिखूं?


उनका आकर मुस्कुराना
जो रूठ जाऊं तो मानना
जाते जाते फिर रूलाना
क्या उनका ये अंदाज़ लिखूं?


कुछ लिखना चाहता हूँ
सोचता हूँ क्या लिखूं?


यादों में उनके आश्क़ बहाना
हर शाम एक दिया जलना
सोई उम्मीद को रोज़ जगाना
क्या उनका ये इंतज़ार-ए-बयान लिखूं?


कुछ लिखना चाहता हूँ
सोचता हूँ क्या लिखूं

रागिनी को समर्पित

लो रितुराज बन बैठा हूँ मैं यहाँ
तुम गीत अधरों पर सजाने लगीं
स्वपन सी साकार होती सृष्टी में
मंजरियाँ पुष्पों की सभी खिलाने लगीं

हो रागनी तुम ही तो मेरे कंठ की
गूंजती झन्कार बन जो गा रहीं
हो कोकिला बैठी हुई उस आम की
कूक से वेदना हृदय की जा रही

कह रही हो "छोड ह्रिदय के वार को
सामने पाने को है मन्ज़िल कई" और
"मै समय तुम समय की चाल हो
थक कर कभी जीवन कहीं रुकता नहीं"

शुन्य मैं, सोया हुआ सा नभ कोई
कौंध है अतुलित तुम्हि में, दामिनि
चीरती, निस्तब्ध्ता को भेद्ती
सामने तुम हो खडी, हे स्वामिनी

मैं तेज से तुम्हारे ही हुआ तेजस्वि
गान जिसकी ख्याती का है हो रहा
हूक से तुम्हरी मै हुन्कार उठा
हर तरफ़ कम्पन घरा पर हो रहा

जीवन समर में तुम हो मेरी सार्थी
कहीं दूर विपदा से मुझे लेजा रहीं
और सारे भ्रमांड में एक शंख की
विजय ध्वनि सी सहज ही गा रही

हाँ, मैं जीवन भर तेरा ऋणी हुआ
सत्या है पर बात कहने की नहीं
मोल तेरी बात का हर शब्द का
मैं चुका सक्ता कभी देवी नहीं

गिले-शिकवे

इस छोटी सी जिन्दगी के, गिले-शिकवे मिटाना चाहता हूँ,
सब को अपना कह सकूँ, ऐसा ठिकाना चाहता हूँ,
टूटे तारों को जोड़ कर, फिर आजमाना चाहता हूँ,
बिछुड़े जनों से स्नेह का, मंदिर बनाना चाहता हूँ.

हर अन्धेरे घर मे फिर, दीपक जलाना चाहता हूँ,
खुला आकाश मे हो घर मेरा, नही आशियाना चाहता हूँ,
जो कुछ दिया खुदा ने, दूना लौटाना चाहता हूँ,
जब तक रहे ये जिन्दगी, खुशियाँ लुटाना चाहता हूँ

लेखनी की मजबूरियां..

भूख लिखूंगा प्यास लिखूंगा,
जीवन को संताप लिखूंगा;
जीवन में जो खाए धोखे,
उसको क्या विश्वाश लिखूंगा?
जीवन के इस पतझड़ को,
कैसे मैं बरसात लिखूंगा?

आखिरी कविता...

वो हार लिखो वो जीत लिखो
वो ग्रीष्म लिखो वो शीत लिखो
हमलोगों के साथ गुजारे
पलों से बना वो संगीत लिखो!!

चाय की चुस्की के साथ निकली
वो हंसी का फुहार लिखो
साथ गुजारे चार सालों की
वो खुशनुमा बहार लिखो!!

लिखना है तो मेरा प्यार लिखो
हम दोस्तों का दुलार लिखो!!

वो बीते लमहों कि आपाधापी
जाने कितने ही रतजगे
न भूलें कभी, वो याद रहे
इसलिए अतीत विस्तार लिखो !!

न आना लैब मे आउटपुट का
वो सप्ली का अम्बार लिखो
जॉब न मिलने का टेन्सन
वो मन्दी का अत्याचार लिखो !!

ऐ मीत मेरे कुछ ऐसा लिखो
जो भावी पीढ़ी का सबक बने
और अंत मे गर कुछ लिखना हो
तो सबको सबका प्यार लिखो !
हाँ प्यार प्यार और प्यार लिखो !!


ये मैंने अपने कॉलेज के आखिरी दिनों में लिखा...........